स्वामी विवेकानंद (भागो मत) | Swami Vivekananda Moral Story

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शरीर-त्याग के बाद उनके शिष्य Swami Vivekananda तीर्थयात्रा के लिए निकले । कई के दर्शन करते हुए वह काशी आयें और विश्वनाथ के मंदिर में पहुंचे । अच्छी तरह से दर्शन करके बहार आयें तो देखते है की कुछ बंदर इधर-से-उधर चक्कर लगा रहे हैं । स्वामीजी जैसे ही आगे बढ़े की बंदर उनके पीछे पड गए ।

उन दिनों स्वामीजी लंबा अंगरखा पहना करते थे और सर पर साफा बांधते थे । विधा प्रेमी होने के कारण उनकी जेबें पुस्तकों तथा कागज़ों से भरी रहती थीं । बंदरों को भ्रम हुआ की उनकी जेंबो में खाने की चीज़े है ।
अपने पीछे बंदरों को आते देखकर स्वामीजी डर गए और तेज़ चलने लगे । बंदर भी तेजी से पीछा करने लगे । स्वामीजी ने दौड़ना आरंभ किया । बंदर भी दौड़ने लगे ।
स्वामीजी अब क्या करे? बंदर उन्हें छोड़ने को तैयार ही नहीं थे । स्वामीजी का बदन थर-थर कांपने लगा । वे पसीने से नाहा गए । लोग तमाशा देख रहे थे, पर कोई भी उनकी सहायता नहीं कर रहा था । तभी एक और से बड़े ज़ोर से आवाज़ आई – “भागो मत ।” ज्योही ये शब्द स्वामीजी के कानों में पड़े, उन्हें बोध हुआ की विपत्ति से डरकर जब हम भागते है तो वह और तेजी से हमारा पीछा कराती है । अगर हिम्मत से उसका सामना करे तो वह मुँह छिपाकर भाग जाती है ।
फिर क्या था, स्वामीजी निर्भिकता से खड़े हो गए, बंदर भी खड़े हो गए । थोड़ी देर खड़े रहकर वे लौट गए । उस दिन से स्वामीजी के जीवन में नया मोड़ आ गया । उन्होंने समाज में जहाँ कही बुराई देखी उससे कतराये नहीं, हौसले से उसका मुकाबला किया ।
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