परिस्थितियां जो भी हो, हमेशा प्रेम से जियो

सौभाग्य से, नफरत, पीड़ा, घृणा या दुश्मनी का भाव मेरे अंदर पैदा नहीं होता चाहे किसी ने किसी भी कारण से किसी रिश्ते या दोस्ती को तोड़ दिया हो। इसके अलावा, मैं हमेशा भगवान से प्रार्थना करता हूं कि सद्भावना के पुनर्निर्माण के लिए स्थिति पैदा करे, क्योंकि मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मेरे प्रति जीवन भर शत्रुता का भाव रखे या मुझसे बचता रहे।

मेरा मानना है कि हम इस दुनिया में प्रेमपूर्ण रिश्ते के लिए आए हैं, न कि किसी से घृणा या दुश्मनी करने के लिए। स्वाभाविक रूप से, दोस्ती (सहानुभूति) और क्षमादान का रवैया इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होता है। इसलिए, जब तक जीवित हूँ तब तक मैं रिश्तों को पुनर्स्थापित करने के लिए एक दैवी मौके के इंतजार में रहता हूँ।

कोई व्यक्ति किसी रिश्ते को तोड़ने का फैसला क्यों करता है – इसका विश्लेषण करें :

हमारे रिश्तों में आक्रोश, स्वार्थ, स्वभाव, अपने विचारों को दूसरों पर थोपना, और अपनी अपेक्षाओं को पूरा करना अंतर्निहित हैं। इनकी पूर्णता में कोई असहयोग करे तो संबंधों में इस हद तक तनाव हो जाता है कि रिश्ता टूट ही जाता है।

मधुर वाणी के नाते मैं हमेशा दूसरों की प्रतिक्रियाएँ सहता हूँ, अर्थात्, जब कोई असंतुष्ट रिश्तेदार या कोई मित्र मुँह फेर लेता है या मेरे साथ संबंध तोड़ने की घोषणा करता है तो मैं यही कहता हूँ – ‘ठीक है, जैसा आप चाहें’। ये मेरा सौभाग्य है कि समयानुसार मुझे हमेशा (सिर्फ एक मामले को छोड़कर) सभी मामलों में मैत्रीपूर्ण रिश्ते और मूल सद्भावना को फिर से स्थापित करने का मौका मिला है।

यहां मुझे लगता है कि भगवान मेरी आंतरिक भावनाओं को ध्यान में रखते हैं और इन स्थितियों को बना कर मेरी मदद करते हैं।

रिश्तों में सद्भावना फिर से स्थापित करने के लिए मुझे भगवान को श्रेय क्यों देना चाहिए? कुछ लोग (कोई आश्चर्य नहीं, मेरा अहंकारी मन भी!) कह सकते हैं कि यह मेरी अच्छी प्रकृति और विनम्रता है जो रिश्तों में सद्भावनाओं के पुनरुत्थान में सहायक होती है।

हमारे मध्य शाश्वत संबंध का दर्शन निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है : आत्म-साक्षात्कार द्वारा अपने ‘स्व’ को जानकर साधक अपने शरीर को आत्मा नहीं मानता और शरीर के भौतिक आनंद एवं अहंकारी चालचलन छोड़ देता है। इन भौतिक आनंदों की ऐसी प्रकृति है कि इसमें दूसरों को हानि पहुंचाने या उनका शोषण करने से भी हम नहीं हिचकते और परिणामस्वरूप हम भी शिकार बन जाते हैं।

प्रकृति के संसाधनों एवं आपस में हम हक समझकर इनका दोहन करते हैं। भ्रमवश लिंग, जाति, संप्रदाय, धर्म, सामाजिक स्थिति के आधार हम आपस में भेदभाव रखते हैं जो सिर्फ आत्मज्ञान द्वारा ही दूर होता है।

जागृति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक इकाई ज्ञान एवं बुद्धिमानी के विकास के माध्यम से आत्म-प्राप्ति की स्थिति की ओर चल रही है । वास्तव में, हमने प्रकृति की सहायता से द्वैतवाद के माध्यम से प्रेमानन्द के लिए अनंत आत्मा के रूप में शुरू हुए। लेकिन किसी भ्रामक शक्ति के प्रभाव में हमने अपने साथी आत्माओं के साथ सभी व्यवहारों में स्वार्थी दृष्टिकोण अपनाया।

इसने निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है :

भगवान, प्राणी समूह (सभी जीवित प्राणी) और प्रकृति (चेतना के बिना निष्क्रिय) ब्रह्मांड में सदा ही मौजूद हैं। कोई भी दूसरे को समाप्त या नष्ट नहीं कर सकता। भगवान, अति जागरूक और दिव्यानन्द स्वरूप, प्रकृति की भ्रामक शक्ति और प्रत्येक प्राणी के नियंत्रक हैं।

सभी प्राणी भगवान के अंश हैं जो कि भगवान के साथ विशुद्ध प्रेम का आनंद चाहते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक प्राणी अनिवार्य रूप से उसका शाश्वत नौकर है, लेकिन प्रकृति के सहयोग से भौतिक संपत्तियों के माध्यम से आनंद लेना और दूसरों पर शासन करना चाहता है। यह आत्म-प्राप्ति के माध्यम से संभव है कि प्राणी को अपने सच्चे ‘स्व’, अपने कर्तव्यों और सच्चे लक्ष्य (गुरु सेवा एवं उनसे प्रेम) का पता लगता है।

आत्मज्ञानी को यह भी पता चलता है कि सभी प्राणी संबंधों के द्वारा नहीं बल्कि उनके अनूठे और शाश्वत रूप से सहयोगी होते हैं। इस प्रकार, जो भी ऐसे जागृत आत्मा के संपर्क में आता है वह प्रेम का आनंद ले सकता है।

इसलिए, इस सृष्टि का उद्देश्य यह है कि प्रत्येक प्राणी जीवन में प्रेम रूपी अमृत का स्वाद चखे और भगवान के प्रति समर्पण की भावनाओं के साथ अपने स्वभाव को सौहार्दपूर्ण बनाए।

Credit: Story by Hindisoch.com